बीरबल साहनी

Birbal Sahni Biography in Hindi

जन्म: 14 नवम्बर 1891, शाहपुर (अब पाकिस्तान में)

मृत्यु: 10 अप्रैल 1949, लखनऊ, उत्तर प्रदेश

कार्यक्षेत्र: पुरावनस्पती शास्त्र

डॉ बीरबल साहनी एक भारतीय पुरावनस्पती वैज्ञानिक थे, जिन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप के जीवावशेषों का अध्ययन कर इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। वे एक भूवैज्ञानिक भी थे और पुरातत्व में भी गहन रूचि रखते थे। उन्होंने लखनऊ में ‘बीरबल साहनी इंस्टिट्यूट ऑफ़ पैलियोबॉटनी’ की स्थापना की। उन्होंने भारत के वनस्पतियों का अध्यन किया और पुरावनस्पती शास्त्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इन विषयों पर अनेकों पत्र और जर्नल लिखने के साथ-साथ बीरबल साहनी नेशनल अकैडमी ऑफ़ साइंसेज, भारत, के अध्यक्ष और इंटरनेशनल बोटैनिकल कांग्रेस, स्टॉकहोम, के मानद अध्यक्ष रहे।

बीरबल साहनी
स्रोत: en.wikipedia.org

प्रारंभिक जीवन

बीरबल साहनी का जन्म 14 नवम्बर 1891 में शाहपुर जिले (अब पाकिस्तान में) के भेङा नामक गॉव में हुआ था। उनके पिता का नाम प्रो. रुचीराम साहनी था। भेढा नमक की चट्टानों एवं पहाङियों से घिरा हुआ एक सुन्दर और रमणीक गाँव था। बालक बीरबल का लालन पालन इस सुंदर रमणीय वातावरण में हुआ। उनके पिता रुचीराम साहनी एक विद्वान, शिक्षा शास्त्री और समाज सेवी थे जिससे घर में बौद्धिक और वैज्ञानिक वातावरण बना रहता था। रुचीराम साहनी ने बीरबल की वैज्ञानिक रुची और जिज्ञासा को बचपन से ही बढ़ाया। बीरबल को बचपन से ही प्रकृति से बहुत लगाव था और आसपास के रमणीक स्थान, हरे-भरे पेङ पौधे आदि उन्हे मुग्ध करती थीं।

उनके घर पर मोतीलाल नेहरु, गोपाल कृष्ण गोखले, सरोजिनी नायडू और मदन मोहन मालवीय जैसे राष्ट्रवादियों का आना-जाना लगा रहता था।

शिक्षा

बीरबल साहनी की प्रारंभिक शिक्षा लाहौर के सेन्ट्रल मॉडल स्कूल में हुई और उसके पश्चात वे उच्च शिक्षा के लिये गवर्नमेंट कॉलेज यूनिवर्सिटी, लाहौर, और पंजाब यूनिवर्सिटी गये। उनके पिता गवर्नमेंट कॉलेज यूनिवर्सिटी, लाहौर, में कार्यरत थे। प्रसिद्ध वनस्पति शास्त्री प्रोफेसर शिवदास कश्यप से उन्होंने वनस्पति विज्ञानं सीखा। सन 1911 में बीरबल ने पंजाब विश्वविद्यालय से बी.एस.सी. की परीक्षा पास की। जब वे कॉलेज में थे तब आजादी की लड़ाई चल रही थी और वे भी इसमें अपना योगदान देना चाहते थे पर पिता उन्हे उच्च शिक्षा दिलाकर आई. सी. एस. अधिकारी बनाना चाहते थे इसलिए उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए बीरबल इंग्लैण्ड चले गये। सन 1914 में उन्होंने कैंब्रिज विश्वविद्यालय के इम्मानुएल कॉलेज से स्नातक की उपाधि ली और उसके बाद प्रोफेसर ए. सी. नेवारड (जो उस समय के श्रेष्ठ वनस्पति विशेषज्ञ थे) के सानिध्य में शोध कार्य में जुट गये। सन 1919 में उन्हें लन्दन विश्वविद्यालय से डॉक्टर ऑफ़ साइंस की उपाधि अर्जित की।

इसके पश्चात वे कुछ समय के लिए म्यूनिख गये जहाँ उन्होने प्रसिद्ध वनस्पति शास्त्री प्रो के. गोनल. के निर्देशन में शोध कार्य किये। बीरबल का पहला शोधपत्र “न्यू फाइटोलॉजी” पत्रिका में छपा जिसके बाद वनस्पति शाष्त्र की दुनिया में उनका प्रभाव बढा। उसी साल उनका दूसरा शोधपत्र भी छपा जो “निफरोनिपेस बालियो बेलिस” के मिश्रित विशलेषण से संबंधित था। उनका शोध कार्य जारी रहा और उन्होने “क्लिविल्स’ में शाखाओं के विकास पर एक शोधपत्र लिखा और उसे “शिड्बरी हार्डी’ पुरस्कार के लिए भी भेजा। सन 1917 में ये शोधपत्र भी “न्यू फाइटोलॉजी” पत्रिका में प्रकाशित हुआ।

बीरबल साहनी अपने विषय में इतने होनहार थे कि विदेश में भी उनकी शिक्षा बिना माता-पिता के आर्थिक सहायता से ही सम्पन्न हुई क्योंकि उन्हे लगातार छात्रवृत्ति मिलती रही। लन्दन के रॉयल सोसाइटी ने भी बीरबल को शोध कार्यों के लिए सहायता प्रदान की थी।

करियर

विदेश प्रवास के दौरान डॉ बीरबल साहनी की मुलाकात अनेक प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों और विद्वानों से हुई। लंदन विश्वविद्यालय ने उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया। सन 1919 में वे भारत वापस आ गये और बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय में वनस्पति शास्त्र के प्राध्यापक के रूप में कार्य करने लगे। इसके बाद उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय में भी कार्य किया परंतु यहाँ भी वे कुछ ही समय रहे क्योंकि सन 1921 में उनकी नियुक्ति लखनऊ विश्वविद्यालय में नव-स्थापित वनस्पति शास्त्र विभाग के अध्यक्ष के रूप में हो गई।

कैंब्रिज विश्वविद्यालय ने उनके शोधों को मान्यता दी और सन 1929 में उन्हें Sc. D. की उपाधि से सम्मानित किया।

प्रो. साहनी प्रयोगशाला के बजाय फील्ड में ही काम करना पसंद करते थे और उन्होंने भेङा गॉव की नमक श्रंखलाओं से लेकर बिहार की राजमहल की पहाङियों और दक्षिंण की इंटरट्राफी प्लेंटो की यात्रा की। सन 1933 में प्रो. साहनी को लखनऊ विश्व विद्यालय में डीन पद पर नियुक्त किया गया। सन 1943 में लखनऊ विश्वविद्यालय में जब भूगर्भ विभाग स्थापित हुआ तब उन्होंने वहाँ अध्यापन कार्य भी किया।

उन्होने हङप्पा, मोहनजोदङो एवं सिन्धु घाटी के कई स्थलों का अध्ययन कर इस सभ्यता के बारे में अनेक निष्कर्ष निकाले। उन्होंने सिन्धु घटी सभ्यता के एक स्थल रोहतक का अध्ययन किया और पता लगाया कि जो लोग शदियों पहले यहाँ रहते थे एक विशेष प्रकार के सिक्कों को ढालना जानते थे। उन्होने चीन, रोम, उत्तरी अफ्रिका आदि में भी सिक्के ढालने की विशेष तकनिक का अध्ययन किया।

वे पुरा वनस्पति के प्रकांड विद्वान थे और अपना ज्ञान अपने तक ही सिमित नही रखना चाहते थे इसलिए छात्रों और युवा वैज्ञानिकों को प्रोत्साहन देते थे। विश्व विद्यालय के डीन के तौर पर उन्हे जो विशेष भत्ता मिलता था, उसका उपयोग उन्होंने नये शोध कार्य कर रहे वैज्ञानिकों के प्रोत्साहन में किया।

डॉ बीरबल साहनी एक पुरा वनस्पति संस्थान स्थापित करना चाहते थे जिसके लिए आवश्यक संसाधन जुटाना एक समस्या थी पर उनके थोड़े प्रयासों से ही कामयाबी मिल गयी और 3 अप्रैल 1946 को पं. जवाहर लाल नेहरु ने बीरबल साहनी संस्थान की आधारशिला रखी। प्रो. बीरबल साहनी ने संस्थान के विकास के लिए कनाडा, अमेरिका, यूरोप तथा इंग्लैण्ड का दौरा भी किया।

सन 1947 में तत्कालीन शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद ने उन्हें देश का शिक्षा सचिव बनने का प्रस्ताव भेजा परंतु डॉ. साहनी अपना बाकी का जीवन पुरा वनस्पति विज्ञानं के अध्ययन, शोध और विकास में लगाना चाहते थे अतः इस प्रस्ताव को विनम्रतापूर्व अस्वीकार कर दिया।

सम्मान और पुरस्कार

प्रो. बीरबल साहनी ने वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र महत्वपूर्ण कार्य किया जिसे देश-विदेष में सराहा गया और सम्मानित किया गया। सन 1930 और 1935 में उन्हें विश्व कॉंग्रेस पुरा वनस्पति शाखा का उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया। वे भारतीय विज्ञान कॉंग्रेस के दो बार (1921 तथा 1928) अध्यक्ष निर्वाचित हुए। सन 1937-38 तथा 1943-44 में वे राष्ट्रीय विज्ञान एकेडमी के प्रधान रहे। 1929 में कैम्ब्रिज विश्व विद्यालय ने डॉ. साहनी को Sc. D. की उपाधि से सम्मानित किया। सन 1936-37 में लन्दन के रॉयल सोसाइटी ने उन्हें फैलो निर्वाचित किया।

व्यक्तिगत जीवन

विदेश से वापस लौटने के बाद सन 1920 में बीरबल साहनी का विवाह सावित्री से संपन्न हुआ। सावित्री पंजाब के प्रतिष्ठित रायबहादुर सुन्दरदास की पुत्री थीं और आगे चलकर डॉ साहनी के शोधकार्यों में हरसंभव सहयोग किया।

सितंबर 1948 में अमेरीका से वापस लौटने के बाद वे अस्वस्थ हो गये और उनका शरीर बहुत कमजोर हो गया। 10 अप्रैल 1949 को दिल का दौरा पड़ने से यह महान वैज्ञानक परलोक सिधार गया।